Monday, January 26, 2009





मददुर वडे की तलाश में
किसी भी आम उडुपी होटल में मेडू वड़ा/ दाल वड़ा/ उद्दीन वड़ा मिल जाता है
उरड की दाल से बने वडे साम्भर के साथ अच्छे लगतें हैं
लेकिन मददुर वडे खास जगहों में ही मिलते हैं
कर्नाटक में वैसे तो लगभग हर जगह मिल जातें हैं
लेकिन अगर कभी बंगलोर- मैसूर ट्रेन से जायें
तो बीच रस्ते में एक छोटा स्टेशन पड़ेगा मददुर
जहाँ ट्रेन तो शायद दो मिनट ही रुकेगी
लेकिन डब्बे लिए हाकरों की ' वड़ा , वड़ा मददुर वड़ा ' की आवाजों से आप बेसब्र होकर एक या दो वडे ज़रूर खरीदेंगे
फिल्टर काफ़ी का भी एक कप साथ में लीजिये
यात्रा सफल हो जायेगी
स्वाद निराला है ,सूजी और मैदे के बने इन कुरकुरे वडे में मूंगफली और तली प्याज का जायका मिलेगा
शायद पुदीने का भी पुट हो ,नारियल की चटनी के साथ साथ लुत्फ़ उठाइए
इन्हें बंद डब्बे में कुछ दिन तक रखा भी जा सकता हैं
मैसूर जाने वाले सैलानियों के लिए मददुर रुकना ज़ुरूरी होता है
बंगलोर से निकलने पर पहले रामनगरम आएगा
जहाँ शोले फ़िल्म की शूटिंग हुई थी
फ़िर मददुर से मंड्या जिले में आप प्रवेश करेंगे
मंड्या जिला गन्ने की पैदावार में आगे हैं
यादव राजनीति में मधेपुरा की जो महत्ता है ,
वोक्कालिगा ( कर्नाटक की ज़मीन से जुडी गौडा जाति) राजनीति में मंड्या का वही मुकाम है
लेकिन हम तो चले थे असली मददुर वडे की तलाश में
बंगलूर /मैसूर राजमार्ग की दायीं तरफ़ पुरानी दुकान है
'मददुर तिफ्फ़नी ' ,कोई ख़ास जगमगाहट नहीं दिखेगी
लेकिन काउंटर पर शीशे के डब्बे में मददुर वडे दिखाई देंगे
ऊपर नज़र मारिये
मद्दुर वडे बनाने की परम्परा की शुरुआत करने वाली अम्मा के चित्र पर माला टंगी है
हम ठीक जगह पहुँच गए थे
कर्नाटका भोजन की थाली में चुकंदर और चने की सूखी सब्जी सबको भाई
थाली के साथ भी मददुर वडे खाए
बाद में घर के लिए भी पैक करा लिए
हथेली की साइज़ का एक
दस रुपये प्लेट के रेट से
अगले दिन तक मज़ा आया

Monday, January 12, 2009




मीठी खिचड़ी
सरकारी नौकरी के कई फायदे हैं
मकर संक्रांति का त्यौहार कैसे मनाया जाएगा ,आपकी पोस्टिंग पर निर्भर है
उत्तर भारत में पोस्टिंग हो तो खिचड़ी ,तहरी बना लीजिये
पंजाब में है तो लोहड़ी मनाइए
दक्षिण भारत में रहने का अवसर मिले तो पोंगल के कार्यक्रम में हिस्सा लीजिये
उत्तर भारत में खिचड़ी के पहले लाई ,चूरा ,गट्टा ,चीनी के खिलौनों खरीदने की यादें ही बचीं हैं
बचपन में भाड़ में दाने भुन्ज्वाना और हलवाई के यहाँ चीनी देकर उसके बने खिलौनों लेना
प्रयाग राज में संगम पर स्नान का संकल्प (जो शायद ही कभी पूरा हुआ हो )
होस्टल में मेस के महाराज का दोने में पुरी आलू सर्व करना
जालंधर में लोहड़ी की ठण्ड में bonfire में मूंगफली डालना
मित्रों से 'दुल्ला शाह' डकैत के अच्छे कामों की कहानी सुनी थी इस दिन
अगले दिन माघी पर्व पर अखंड पाठ और लंगर
दक्षिण भारत में पोंगल का लंबा कार्यक्रम रहता है
कर्नाटक में संक्रांति के दौरान मित्रों को Yellu, Sakkare Achchu,( तिल , गुड ,सूखा नारियल और मूंगफली का मिश्रण )देने की प्रथा है
Sakkare पोंगल (मीठी खिचड़ी) जरुर बनातें हैं
तमिलनाडु में पॉँच दिन तक पोंगल की खुशियाँ जारी रहती हैं
तमिल मास 'थाई' में आने पले इस पर्व के दौरान चार दिन तक खाने पीने का दौर चलता है
पहले दिन भोगी के दिन - 'ven pongal' (नमकीन खिचड़ी) अगले दिन 'Surya Pongal' -Sakkare पोंगल (मीठी)
तीसरा दिन 'Mattu Pongal' -किसानों और गाय- गोरु की पूजा का दिन
चौथे दिन Kaanum पोंगल मानते हैं जब लोग परिवार , मित्र जनों से मिलने जाते हैं -कौवों ,चिडियों के लिए चावल डालने का भी रिवाज़ है
हम लोगों को तो नए गुड और नए धान की Sakkare पोंगल (मीठी खिचड़ी) खूब भाई
हर साल मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी, तहरी के साथ इसका बनना भी ज़रूरी है
चनेकी दाल से बने वाली इस मीठी खिचड़ी का स्वाद निराला है
आप भी बना कर देखें
(Recipes on www.bhojanbhattkirasoi.blogspot.com)

Friday, January 9, 2009




डबल बीन्स का मेला

गुरूवार की छुट्टी थी
जब संगिनी से पूछा कि सिनेमा हॉल में गजनी फ़िल्म देखने चलना है या
सज्जन राव सर्कल चलें अवरेकई (डबल बीन्स) का मेला देखने
तो उन्होंने भोजन भट्ट की आशा के अनुरूप जवाब दिया
"मैं तो ख़ुद अवरेकई खरीदने के बारे में सोच रही थी ""
दिल बल्ले बल्ले करने लगा


अवरेकई हरी फली के परिवार की सेम जैसी सब्जी है
जो हरी मटर की तरह जाडों में फलती है
अन्दर की फली को बोल चाल की भाषा में डबल बीन्स कहतें हैं
पुराने दिनों में जाडों के मौसम में लोग धूप खाते हुए इसे छीलते थे
फली का व्यंजन बनाते थे, छिलके गाय गोरु को डाल देते थे
उत्तर भारत में मटर की छिम्मी की तरह
मकर संक्रांति के दौरान पुराने मैसूर राज्य में रागी मुद्डे के साथ अवरेकई का साम्भर बनता था
आजकल मकर संक्रांति से पहले पखवाडे में पुराने बैंगलोर के सज्जन राव सर्कल पर यह मेला लगता है
आखिर कार बंगलोर शब्द बना है कन्नड़ शब्द बेन्दकलूरू से जिसका अर्थ है City of Boiled Beans
तो लोगों से रास्ता पूछते हम लोग पहुँच ही गए डबल बीन्स का मेला
मेला जैसी भीड़ भाड़ नही थी ,
एक दुकान (Vasavi Condiments)के सामने शामियाना लगा था
कतारबद्ध लोग कूपन खरीद रहे थे ,हाथों में झोले थे
तवे पर डोसा तले जाने की खुशबू आ रही थी
दुकान से ताजी/ छिली अव्रेकालू बीन्स २५-३० रुपये फी सेर खरीदी जा सकती
हमने दोनों तरह की खरीदी ,सोचा साम्भर और बिसी बल्ले बाथ (चावल दल और सब्जी को मिला कर बनने वाला क्षेत्रीय व्यंजन) बनायेगें
फ़िर चले खाने के स्टाल्स की तरफ़
बोर्ड पर लिखा वड़ा, avrekai डोसा , पूरी और avrekai सागू ,obbatu avrekai के आटे से बना ओब्बतु (मीठा पराठा -गुड का बना ) , अवरेकई उपमा, अवरेकई ginnu (दूध से बनी मीठी डिश )
हर डिश बीस रुपये से कम की थी उपमा और वड़ा दस रुपये प्लेट थे ,डोसा बीस रुपये का था
हमने avrekai डोसा और वड़ा लिया
वड़ा डाल वड़ा की तरह था,अन्दर avrekai पड़ी थी ,चटनी नहीं मिली
पर असली आनंद आया गरमागरम डोसा खाने में
उत्थापम की तरह बने दोसे के ऊपर हरी अवरेकई की फली और प्याज का कुरकुरा मिश्रण पड़ा था
साथ में अवरेकई से बनी गरम साम्भर
बिटिया रानी के लिए उपमा और वड़ा पैक करा लिया
उन्हें मेले ठेले से डर लगता है
फ़िर सोच अन्दर दुकान में नज़र मार लें ,आख़िर इतनी भीड़ क्यों है
वहां बाल्टियों में अवरेकई के बने नमकीन भरे थे
जिन्हें खरीदने के लिए लोग बेकाबू हो रहे थे
हमने भी निपट्टू (अवरेकई भर कर बना मठरी जैसा नमकीन ) ख़रीदा
जाडे की इस फली का इंतज़ार रहेगा

Monday, January 5, 2009




बिटिया रानी का टिफिन

संगिनी को सदा यह शिकायत रही है कि मैं बिटिया का टिफिन कुछ ज़्यादा ही ठूंस कर भर देता हूँ
दरअसल बिटिया रानी के नर्सरी स्कूल शुरू करने के दिन से ही यह जिम्मेंदारी ले ली थी
कि हर सुबह उसका टिफिन मैं ही पैक किया करूंगा
जिसे खुशी खुशी निभाया भी है
एक साल के दिल्ली के 'वन वास' के सिवा
पर वहां से भी मैं हर शाम पूछ ही लेता था कि कल के टिफिन में क्या है
इसलिए आज मधुर जाफरी की आत्मकथा '‘Climbing a mango tree’ में उनके तीन डब्बों वाले टिफिन के बारे में पढ़ कर खुशी हुई कि चालीस के दशक में भी दिल्ली में स्कूली बच्चे नाश्ते में कोरमा ,रुमाली रोटी भी ले जाया करते थे
हम चारो भाई बहन तो पराठा,आलू की सब्जी /पूरी आलू के सिवा कुछ और टिफिन में ले गए हों ,अब याद नहीं
यह सहूलियत बिटिया रानी के साथ नहीं थी
दक्षिण भारत में पल बढ़ रहीं थीं , शायद इसलिए पूरी पराठे के स्वाद से कोई रिश्ता नही बन पाया था
नर्सरी स्कूल के दिनों में ब्रेड जैम से काम चल जाता था
पर वे ज़ल्दी इससे बोर हो गयीं ,दूसरे हर रोज़ ब्रेड देना कोई स्वास्थ्यवर्धक बात नहीं लगती थी
अब क्या किया जाए
सुबह पन्द्रह मिनट में कौनसा नाश्ता बनाया जाया जो उनको पसंद भी हो,
'Junk food ' की श्रेणी में भी न आता हो ,
साथ में ठंडा होने पर नूडल्स और पिज्जा/पास्ता की तरह अखाद्य न हो जाता हो
सहपाठियों के टिफिन के निरीक्षण से पता चला कि वे ‘lemon rice’ तथा ‘puliyogre’ लाते थे
इसे बनाने का तो बड़ा सरल तरीका था
सुबह आधी कटोरी चावल बना लीजिये ,उसे बघार लगा कर छोंक लीजिए
ऊपर से निम्बू का रस या पुलियोग्रे (इमली/गुड ) का रेडी मेड पेस्ट मिला लीजिए ,नाश्ता तैयार है
(recipes on www.bhojanbhattkirasoi.blogspot.com)
लेकिन हर दिन मसाले वाले चावल नही जमते
सूजी का उपमा और चावल की सेवयिओं का उपमा ख़ास रास नहीं आया
शयद सब्जियां डालने के हमारे आग्रह से स्वाद में वो बात नही रहती थी
फ़िर बिना मटर डाले 'पोहा' और साथ में मसालेदार चने की घुघनी आजमाई गई
यह हिट रेसिपे थी ,सहपाठियों के घरों से बनाने की विधि जानने के लिए फोन आने लगे
जालंधर प्रवास का इतना फायदा हुआ कि रोटी/भरवां पराठे अब वर्जित पदार्थों की श्रेणी से बाहर आगये
सो कभी कभार रोटी के अन्दर भुने/तले पनीर के ऊपर प्याज के लच्छे डाल कर 'काठी रोल ' का शाकाहारी संस्करण बन जाता है
जाड़े में गोभी/आलू प्याज के पराठे भी चल जातें हैं बशर्ते साथ में लहसुन / आम का अचार हो
अचार पर्याप्त मात्र में रखा जाता है ,क्लास की और लड़कियों के लिए भी
लेकिन अक्सर ब्रेड/बर्गर के बीच खीरा,प्याज,पनीर रख कर संदविच भी बना ली जाती है
स्कूल में दो बार छुट्टी होती है ,इसलिए दो टिफिन ज़रूरी हैं
हफ्ते में एक बार इडली/डोसा/उत्थपम भी बनाने का प्रयास रहता है
एक बार दोसे का मिश्रण बन जाए तो उसीसे एक दिन इडली,अगले दिन सादा डोसा और अगले दिन प्याज वाला उत्थपम भी बन जाता है
चने की दाल की चटनी और टमाटर के अचार साथ जायका अच्छा बनता है
आजकल शोध जारी है

Saturday, January 3, 2009



पिजा वाली दादी

नए साल में अच्छी ख़बर
पिज्जा बेचकर बनाया वृद्धाश्रम
बेंगलूर की दो वृद्धाओं ने समाजसेवा के उद्देश्य से वृद्धाश्रम बनाने का सपना पाला और फिर पिज्जा बेचकर इसे सच भी कर दिखाया। पिज्जा दादी के नाम से मशहूर 73 वर्षीय पद्मा श्रीनिवासन और 75 वर्षीय जयलक्ष्मी श्रीनिवासन के जेहन में वर्ष 2003 में एक वृद्धाश्रम बनाने का विचार आया, तो उन्होंने पिज्जा बेचकर इसका निर्माण करने का फैसला किया।

पद्मा ने बताया कि मैं हमेशा समाज में अपना योगदान देना चाहती हूं। हमारे समाज में वृद्ध सर्वाधिक उपेक्षित है, इसलिए मैं उनके लिए कुछ करना चाहती हूं। पद्मा ने इसके लिए पहले बेंगलूरु से 30 किलोमीटर दूर विजयनगर गांव में एक भूखंड खरीदा। एक औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान से वित्ता प्रबंधक के रूप में सेवानिवृत्ता पद्मा ने कहा कि भूखंड खरीदने के लिए मैंने अपने पास से 10 लाख रुपये खर्च किए।

वह आगे बताती है कि यह भूखंड 22,000 वर्ग फुट का है, लेकिन अब इस भूखंड पर वृद्धाश्रम का निर्माण करने के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे। इस कार्य में 78 लाख रुपये की लागत आने वाली है। इसी दौरान मेरी बेटी सारसा वासुदेवन व मेरी मित्र जयलक्ष्मी ने इस काम हेतु पैसे जुटाने के लिए पिज्जा बनाकर बेचने का सुझाव दिया। इसके साथ ही पिज्जा का मेरा कारोबार शुरू हो गया। पिज्जा हेवेन' नामक पिज्जा की दुकान पद्मा की बेटी के गरेज में शुरू हो गई। जयलक्ष्मी ने कहा कि पिज्जा की आपूर्ति बेंगलूरु के आईटी कंपनियों में शुरू की गई। जल्द ही हमारा पिज्जा यहां के युवा आईटी कर्मचारियों का पसंदीदा बन गया। पिज्जा हेवेन में तैयार होने वाले पिज्जा की ज्यादातर खपत एचपी, आईबीएम, सिम्फोनी, एसेंचर व सन् माइक्रोसिस्टम्स जैसी शीर्ष बहुराष्ट्रीय कंपनियों में होती है।

जयलक्ष्मी मुस्कुराते हुए कहती है कि पिज्जा हेवेन की प्रगति भी हमें चकित करती है। पिज्जा हेवेन से प्रतिदिन लगभग 200 पिज्जा की बिक्री की जाती है। पिज्जा की कीमत 30 रुपये से 120 रुपये के बीच है। इस तरह, पिज्जा से होने वाली आय व शुभचिंतकों के आर्थिक सहयोग से वर्ष 2008 के जून महीने में 'विश्रांति' नामक वृद्धाश्रम बनकर तैयार हो गया। 'विश्रांति' में अभी 10 वृद्ध रहते है। इस संख्या में जल्द ही बढ़ोतरी होने वाली है।

आभार-जागरण/yahoo/hindu