Sunday, April 26, 2009


बंद हो रहीं हैं किताबों की दुकानें

अभी दिल्ली के श्रीराम सेंटर के वाणी प्रकाशन दुकान बंद होने के सदमे से उबर नहीं पाया था
पता चला कि बंगलोर की प्रिमिएर बुक शॉप भी बंद हो रही है
चर्च स्ट्रीट पर ६०० sqft की छोटी सी दुकान में पचास हज़ार किताबें बेतरतीबी से रखी/ठुंसी पड़ी थी
38 साल पुरानी इस दुकान में न तो काफी मिलती थी ,न संगीत की CD या ग्रीटिंग कार्ड
कंप्यूटर भी नहीं था
आज जब हर माल में बनी airconditioned बुक शॉप में कंप्यूटर लगें हैं
शायद ही किसी सहायक को यह भी पता होता है कि अमुक किताब उसकी दुकान में है भी या नहीं
पर प्रिमिएर के मालिक टी एन शानबाग को अपनी दुकान के हर कोने में रखी हर किताब की जानकारी थी
अपनी जिंदगी में इतना सुसंस्कृत,शालीन पुस्तक प्रेमी मालिक मैंने नहीं देखा
१९९१ में पहली बार इस दुकान में कदम रखा था किसी दुर्लभ किताब की तलाश में
शानबाग साहब ने न केवल किताब ढूंढ़ निकाली बल्कि उस लेखक की कई ऐसी किताबों के बारे में बताया जिन्हें मैं जानता भी नहीं था
बिल बनाते समय बिना मांगे १०% discount भी दे दिया
मैं अभिभूत था
दुकान किराये की थी ,बढ़ता किराया न दे पाने में असमर्थ शानबाग साहब ने प्रिमिएर बुक शॉप को बंद कर
अपनी बेटी के पास ऑस्ट्रेलिया में बसने का इरादा कर लिया है
अगर इस देश में सम्मान सही लोगों को दिए जाते
तो ३८ सालों तक पुस्तक प्रेमियों की सेवा के लिए इन्हें पद्म श्री से नवाजा चाहिए था

हाल में भोजन पर आधारित तीन किताबें पढ़ी
चित्रीता बनर्जी की 'Bengali Cooking: Seasons and Festivals '
बंगलादेशी मुस्लिम परिवार में ब्याही भद्र महिला ने बंगाल के दोनों भागों के भोजन और रस्मो रिवाज का रोचक चित्रण किया है ,पर इनकी संपादित 'EATING इंडिया' बेकार लगी
पुरानी दिल्ली के कायस्थ परिवार की दो बहनों की किताबें
शीला धर की 'रागा न जोश' और मधुर जाफरी की 'CLIMBING THE MANGO TREES'
एक ही समय को दो बिलकुल अलग नज़रिए से देखती हैं
शीला धर की किताब ज्यादा रोचक है, संगीतकारों की निजी जिंदगी के अनमोल वर्णन हैं
अब इंतज़ार है जिद्दु कृष्णामूर्ति के सहायक रहे MiCHAEL kROHNEN की 'THE kitchen chronicles' की
अगर प्रिमिएर बुक शॉप खुली होती तो शानबाग साहब ज़रूर खोज निकालते

Sunday, April 19, 2009

महानगर में भूखे पेट
जब अखबार और टीवी चैनल बड़े शहरों के नए रेस्तौरंतों की चटखारे वाली खबरों से पटे हैं
वरिष्ठ सरकारी अधिकारी 'हर्ष मंदर' ने 'हिन्दू' अखबार में बेसहारा लोगों की एकाकी ज़िन्दगी की भयावह तस्वीर खींची हैं पटना , दिल्ली , मदुरै और चेन्नई की सड़कों पर पिछले दो सालों में बेघर लोगों के सर्वेक्षण से
यह साफ़ है कि मजबूर लोग किसी की दया या मेहरबानी पर जिंदा नहीं रहना चाहते
बीस फीसदी लोग भूखे रहते हैं पर किसी रिश्तेदार या मंदिर की सीढियों पर हाथ फैलाते नजर नहीं आते
महानगरों की जगमगाती रोशनी के बीच ये भूखे चेहरे आपको शायद नहीं दीखते
मध्य वर्ग के सुरक्षा कवच में बैठे हम आप इन बेसहारा लोगों को निगाह से दूर रख कर भूल जाना चाहतें हैं
बड़े लोगों की नज़र में सड़क के किनारे पड़े ये लोग नए भारत की चकमक छवि पर धब्बा हैं
ज्यादातर बेघर बच्चे भोजन खरीद कर खातें हैं

बुरे दिनों में दरगाह,गुरुद्वारा या मंदिर का प्रसाद इनका सहारा बनता हैं
छोटे बच्चे कूड़ेदान में खाना खोजने को अभिशप्त हैं
एक बेसहारा महिला हर सुबह दो रुपये की चाय पीकर कूड़े /फटे कपडे खोजने निकल जातीं हैं
दिन भर की हाड तोड़ मशक्कत के बाद अगर आमदनी हुई तो
आठ रुपये में सड़क के किनारे पर ठेले वाले से एक प्लेट चावल दाल और सब्जी खरीदती हैं
शाम को तीन रोटियां छह रुपये में मिल जाती है
ये सब कुछ तीस रुपये की औसत आमदनी से निकलना पड़ता है
. कभी कभी होटलों के बाहर समोसों के टुकडों या बिस्कुट से काम चलाना पड़ता है
कई दिन एक बार भी भोजन मुश्किल से मिल पाता है
बड़े शहर की निर्मम ज़िन्दगी का एक पहलू
हर्ष मंदर साहब को साधुवाद

Wednesday, April 8, 2009


पनीर पुराण
जब इंगलैंड की राष्ट्रीय डिश के रूप में 'चिकन टिक्का मसाला' को मान्यता मिल चुकी है
क्यों न भारत की सबसे पसंदीदा डिश का खिताब 'पनीर बटर मसाला' को दे दिया जाये
आखिर हिंदुस्तान के हर कोने में यह मिल जाती है
बनाने का तरीका चाहे जो हो , दिखती एक जैसी है
लाल टमाटर के सास में पके पनीर के टुकड़े
उसमें मक्खन और फ्रेश क्रीम का समावेश
अदरक लहसुन और काजू के पेस्ट का असर भी दिखता है
सजावट के लिए हरी धनिया के पत्ते
रोटी या नॉन के साथ लुत्फ़ उठाईये
इस डिश में कुछ तो ख़ास होगा जो हर ढाबे /रेस्तरां के मेनू में होना इसका लाजिमी है
सुना है कि एक बार जब भोजन भट्टों के आध्यात्मिक गुरु उदिपी पधारे थे
उनके स्वागत में जब 'पनीर बटर मसाला' पेश की गयी
तो उन्होंने मालिक से पूछा क्या आप लोग भी इस industrial waste को खाते हैं
जवाब मिला कि हम लोग तो खुद नीर डोसा और सूखा चिकन (मसाले में भुना हुआ) खाने वाले हैं
आप को भी हम पेश कर देते
पर दिल्ली से आये हुए गेस्ट इसके बिना संतुष्ट नहीं होते
मेरा निजी अनुभव भी कुछ ऐसा ही रहा है
बचपन में छेने की सब्जी शादी ब्याह के भोज में खायी थी
पर पनीर का प्रचलन तब नहीं था
शायद अमूल डेरी की दुग्ध क्रांति का असर उत्तर प्रदेश के शहरों तक नहीं पहुंचा था
लेकिन नौकरी में आने के बाद लगा
पंजाब /हरियाणा और दिल्ली में किसी शाकाहारी आदमी के लिए
पनीर की सब्जी खाने के बिना जीना असंभव है
बंगलोर में १९९१ के दौरान दफ्तर के मुलाजिम पनीर की गुणवत्ता से अनभिज्ञ थे
लेकिन अब तो हर जगह पनीर उपलब्ध है
अपने अनेक रूपों में
मुझे भी आदत डालनी पड़ेगी