Thursday, October 1, 2020


पेरिस में माओज़ के फलाफेल 



बात सन २०११ की है 

भोजनभट्ट परिवार यूरोप की ट्रेन  यात्रा पर निकला 

सोचा गया क़ि फ़्रांस ,इटली और स्विट्ज़रलैंड रेल से घूमेंगे 

बिटिया रानी फ्रेंच बोल लेती है ,पूछते पूछते  घूम लेगें .

लेकिन पहले पड़ाव पेरिस से ही मुश्किलें शूरू हो गईं .

शाकाहारी परिवार ने सोचा था कि पेरिस में किसिम किसिम के व्यंजनों की भरमार होगी ,

कहीं कहीं, थाली सही, कुछ तो मिल जायेगा खाने के नाम पर 

पर दूसरे दिन शाम तक तलाश नाकाम रही .

ऐसा नहीं कि पेरिस में हिंदुस्तानी खाना नहीं मिलता 

Gare du Nord रेलवे स्टेशन के पास तो पूरी गली देसी रेस्टॉरेंटों से भरी है 

पर हम लोग टुरिस्ट दर्शन की जगहों के पास भटक रहे थे 

लूव्रे राजमहल ,आइफेल टॉवर ,म्यूजियम वगैरह 

नोट्रे डोम चर्च तक पहुँच कर तेज भूख लग चुकी थी 

सीन नदी के किनारे भटकते परिवार नाउम्मीद हो चला था 

अचानक Rue Xavier Privas और Rue de la Huchette सड़क के मोड़ पर 

एक छोटी सी ढाबे नुमा दुकान दिखी 

जिस पर Maoz Veg लिखा था ,पढ़ कर आँखे चमक गयीं 

अंदर कदम रखने पर दो  तीन मेज और चार पांच कुर्सियां नज़र आईं 

डीप फ्रायर में से तलने की खुशबू रही थी 

मेनू में एक ही चीज़ थी, तीन यूरो की ,

नान जैसी पीटा ब्रेड में पांच फालाफेल 

चना दाल के वड़े जैसे कटलेट  ,

 



सारे अरब देशों,इज़राइल ,लेबनान में नाश्ते में मिलते हैं 

चार पांच तरह के सलाद  बर्तनों में थे

आप जितना चाहें सैंडविच में डाल लीजिये 

हरे खीरे ,कटे टमाटर,पत्ता गोभी ,काले हरे ओलिव,

पुदीना   सलाद और तहिनी सॉस 

भूखे परिवार की जान में जान आयी 

इतना सलाद ज़िन्दगी में कभी खाया हो,याद नहीं 

माओज़ साहब और उनकी दुकान को सलाम  किया 

फलाफेल सैंडविच खाकर अब कदम तेज़ी से उठने लगे 

अगले पड़ाव की तरफ 



Friday, September 18, 2020

बीजापुर की खानावली  


   




हम्पी दर्शन के बाद बीजापुर का गोल गुम्बज़  देखा गया 

आदिल शाही सुल्तान के काल की ईमारत में द्रविड़ और इस्लामी शैलियों का संगम है 

घुमावदार सीढ़ियों से चल कर छत तक चढ़ने उतरने के बाद सबको भूख लग आयी थी 


ड्राइवर साहब टूरिस्टों में मशहूर होटलों तक ले गए 

पर बात जमी नहीं ,शाही पनीर और तंदूरी रोटी खाने हम थोड़े ही बीजापुर आए  थे 

पूछ ताछ का फ़ायदा हुआ ,उत्तर कर्नाटक के भोजन की तलाश गलियों में शुरू हुई 

किसी भले मानुस ने खानावली  का पता बताया

पता चला कि घर की महिलाओं द्वारा चलायी जाने वाली मेस की परम्परा इस क्षेत्र में है 

महीने भर का दो टाइम का भोजन विद्यार्थियों को सुलभ कराया जाता था,

गृहस्वामिनी द्वारा ,वाज़िब कीमत पर 

बम्बई में मिल के मज़दूर भी इस प्रणाली के शुक्रगुज़ार रहें हैं 

लुढ़कते  पड़कते हम भी बीजापुर की खानावली  माई के घर पहुँच गए 

एक कमरे के ठौर ठिकाने में छोटी सी रसोई में चूल्हे पर तवा चढ़ा था 

पास में दो तीन बटलोई /भगोने नज़र आये 

डर लगा कि आज भर पेट खाना मिलेगा भी या नहीं. 

पर एक बार स्टील की थालियां पंगत में लगी,तो दिल खुश हो गया 

ज्वार की जोलडा रोटी तवे से उतर रही थी 

साथ में मेथी वाली अंकुरित हरी मूंग दाल

और भरवां बैंगन की उत्तर कर्णाटक शैली की सब्जी थी 

मसाला थोड़ा तेज था ,कोपरा ,मूंगफली और तिल और बैडगी  मिर्चो का मिश्रण था 

इस इलाके की ख़ास चटनी पॉवडर -शेंगा पुडी भी थाली में परसी गयी 

मूंगफली और मिर्चों को पीस कर बनायीं  लगती थी 

एक भगोने से गरमा गरम चावल भी निकला 

मेथी का हरा साग और देसी प्याज सलाद की पूर्ति करते थे 

बिटिया रानी को घर की जमाई सजाव दही खूब भाई 

दादाजी भी खुश थे इस अनुभव से 

अभी एक अचरज बाकी था 

चार लोगों के भोजन का बिल साथ की दुकान से मंगाई गयी 

बिसलेरी की बोतलों के बिल से भी कम था 

आदर से सर  झुक गया बीजापुर की खानावली   माई की दस्तक पर 

इतने साल बाद भी स्वाद ताज़ा है 

चित्र साभार