दूधपत्री में सरसों का साग
इस बार कश्मीर का मिज़ाज़ कुछ बदला बदला था .
1989 में नाबार्ड की नौकरी के सिलसिले में अनंतनाग जाना होता था .
पहली बार बटमालू के बस अड्डे पर पूछने की कोशिश की ,
तो एक खटारा बस की तरफ इशारा कर दिया ,जिस पर उर्दू में गंतव्य स्थल लिखा था
बस में एक नौजवान ‘इस्लामाबाद ’की हुंकारी लगा रहा था
डरते डरते बस में बैठ तो गया ,पर दिल कांप रहा था
शहर में उतरकर देखा कि दुकानों के बोर्ड पर ,
'अनंतनाग 'को काले पेंट से रंग कर हाथ से इस्लामाबाद लिख दिया गया था
बस पोस्टऑफिस की इमारत बची थी ,जहाँ ठीक नाम लिखा था
वैसे तो यह जगमोहन के राज्यपाल कार्यकाल और पंडितों के निर्वासन से पहले के दिन थे
पर हवा में एक अजीब सा तनाव था ,किसी वक़्त भी कुछ अनहोनी का डर समाया रहता था
इस बार वादी टूरिस्टों से भरी पड़ी थी .
Tulip के बाग़ देखने को आये लोगों में काफी बांग्ला भाषी ग्रुप्स दिखे
पहलगाम और गुलमर्ग की सैर के बाद ड्राइवर की सलाह मान कर ,
दूधपत्री की यात्रा का कार्यक्रम बना
बडगाम ज़िले से आगे चलकर ,पीर पंजाल पहाड़ियों की घाटी में
दूधगंगा और शैलगंगा नदियों का उद्गम स्थल है
पर हम वहां तो पहुँच ही नहीं पाए ,
सोचा था कि अनजान सी जगह होगी,शांति से पिकनिक मनाएंगे
पर रास्ते में मील भर का लम्बा ट्रैफिक जैम लगा था ,
अच्छी खासी सड़क ,टूरिस्ट गाड़ियों ,घोड़ों और ATS स्कूटर्स से भरी पड़ी थी .
आगे बढ़ना मुश्किल था ,और यह अभी सीजन की शुरुआत है .
पता चला कि आसपास के गाँव की महिलाएं सड़क किनारे ,
स्थानीय भोजन के स्टाल लगाती हैं .
मकई की रोटी ,सरसों के साग का स्थानीय स्वाद ,नदरू गाजर का अचार .
साथ में नून चाय या पत्ती वाली दूध चाय ,
स्टाल के संचालक फिरदौस ने आग्रह कर गॉंव की बेकरी के बिस्कुट भी खिलाये .
दरिया तक न पहुँच पाने का दुःख कुछ कम हुआ .
गरम रोटी का स्वाद दिव्य लगा .
इसमें वादियों की खूबसूरती का भी समावेश था
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