बीजापुर की खानावली
हम्पी दर्शन के बाद बीजापुर का गोल गुम्बज़ देखा गया
आदिल शाही सुल्तान के काल की ईमारत में द्रविड़ और इस्लामी शैलियों का संगम है
घुमावदार सीढ़ियों से चल कर छत तक चढ़ने उतरने के बाद सबको भूख लग आयी थी
ड्राइवर साहब टूरिस्टों में मशहूर होटलों तक ले गए
पर बात जमी नहीं ,शाही पनीर और तंदूरी रोटी खाने हम थोड़े ही बीजापुर आए थे
पूछ ताछ का फ़ायदा हुआ ,उत्तर कर्नाटक के भोजन की तलाश गलियों में शुरू हुई
किसी भले मानुस ने खानावली का पता बताया
पता चला कि घर की महिलाओं द्वारा चलायी जाने वाली मेस की परम्परा इस क्षेत्र में है
महीने भर का दो टाइम का भोजन विद्यार्थियों को सुलभ कराया जाता था,
गृहस्वामिनी द्वारा ,वाज़िब कीमत पर
बम्बई में मिल के मज़दूर भी इस प्रणाली के शुक्रगुज़ार रहें हैं
लुढ़कते पड़कते हम भी बीजापुर की खानावली माई के घर पहुँच गए
एक कमरे के ठौर ठिकाने में छोटी सी रसोई में चूल्हे पर तवा चढ़ा था
पास में दो तीन बटलोई /भगोने नज़र आये
डर लगा कि आज भर पेट खाना मिलेगा भी या नहीं.
पर एक बार स्टील की थालियां पंगत में लगी,तो दिल खुश हो गया
ज्वार की जोलडा रोटी तवे से उतर रही थी
साथ में मेथी वाली अंकुरित हरी मूंग दाल
और भरवां बैंगन की उत्तर कर्णाटक शैली की सब्जी थी
मसाला थोड़ा तेज था ,कोपरा ,मूंगफली और तिल और बैडगी मिर्चो का मिश्रण था
इस इलाके की ख़ास चटनी पॉवडर -शेंगा पुडी भी थाली में परसी गयी
मूंगफली और मिर्चों को पीस कर बनायीं लगती थी
एक भगोने से गरमा गरम चावल भी निकला
मेथी का हरा साग और देसी प्याज सलाद की पूर्ति करते थे
बिटिया रानी को घर की जमाई सजाव दही खूब भाई
दादाजी भी खुश थे इस अनुभव से
अभी एक अचरज बाकी था
चार लोगों के भोजन का बिल साथ की दुकान से मंगाई गयी
बिसलेरी की बोतलों के बिल से भी कम था
आदर से सर झुक गया बीजापुर की खानावली माई की दस्तक पर
इतने साल बाद भी स्वाद ताज़ा है
चित्र साभार