Monday, June 30, 2008


बंद होना एक रेस्तरां का
काफी हाउस कहना अतिश्यक्योति होगी

लेकिन ज्यादातर काफी पीने ही हम लोग वहां जाते थे

बंगलोर में जिस सोसाइटी में हम लोग रहते हैं ,उसमे निलगिरिस का सुपरमार्केट है

बाहर वालों को बता दूँ कि निलगिरिस दक्षिण भारत का सबसे पुराना सुपरमार्केट है

जिसकी शुरुआत डेरी फार्म के तौर हुई थी लेकिन अच्छे उत्पादों की वजह से विस्तार में देरी नही लगी

बंगलोर की ब्रिगेड रोड वाली दुकान पर हमेशा भीड़ रहती थी

नीचे बेसमेंट में बेकरी और ऊपर वाली मंजिल पर रेस्तरां

लेकिन हमेशा भीड़ भाड़ होने से कभी तस्सली से बैठ कर खाने का सुख नहीं मिला

इसलिए जब मकान एअरपोर्ट रोड वाली सोसाइटी में मिला तो भोजन भट्ट का पूरा परिवार गदगद था

निलगिरिस से खरीदारी और गाहे बगाहे नाश्ता खाना

वह भी कैम्पस के अन्दर ,सड़क पार करने की ज़रूरत भी नहीं

नाश्ते में दक्षिण भारतीय पारंपरिक व्यंजन

इडली,वादा,डोसा,उपमा,

बंगलोर के नए उमर वालों के लिए संदविच और आमलेट भी

पर पूरी तौर से आत्मीय अंदाज़ में

इसका कारण पूरे रेस्तरां का सञ्चालन महिला कर्मियों के हाथ में था

बिलिंग से लेकर खाना पकाने और सर्व करने तक

महिला बावर्ची कुशल थीं , हम लोग अंदाजा लगते थे कि आज अमुक ने डोसा बनाया है, करारा होगा

बिल्कुल घर जैसा माहौल और स्वाद

(फर्नीचर थोड़ा घिस गया था ,अपनी जिंदगी की तरह )

साम्भर बंगलोर के आम रेस्तरां से हटकर पतली और कुछ कच्चे मसाले की खुशबू में पगी हुई

दोपहर में हर दिन अलग टिफिन बनता था

कभी आलू बोंदा ,कभी प्याज भाजी, कभी मद्रास पकौडा

बिटिया रानी को मद्दुर वड़ा पसंद है पर सही दिन हम लोग पहुँच नही पाते थे

एक बार गए तो महिला कर्मी ने पूछा बिटिया नही आई ,अच्छा हुआ ,दुखी होती

आज के सारे मद्दुर वडे एक सज्जन पार्टी के लिए ले गए

सुन कर अच्छा लगा की हमारी पसंद का कोई इतना ख्याल रखता है


इस बार सुपरमार्केट में जब ' Closed for Renovation' की तख्ती लगी दिखी

तो अंदेशा हुआ कि कहीं नए मालिक रेस्तरां को बंद न कर दें

आख़िर इतनी बिक्री तो नही है यहाँ

दो महीनों तक झांक झांक कर देखते थी कि रसोई वाला हिस्सा बरक़रार है या नहीं

पता नहीं चला

आख़िर गुरूवार को नई साज सज्जा में निलगिरिस सुपरमार्केट की फिर शुरुआत हुई

चकमकाती Tiles और नए उत्पादों से भरे स्टोर में से रेस्तरां गायब था

रसोई और फर्नीचर को हटाकर महंगे आयातित खाद्य पदार्थों को सजाया गया था

यह पूछने पर कि इडली मिलेगी क्या ,हरी टी-शर्ट पहने सज्जन ने प्लास्टिक पैक की ओर इशारा किया

मन उखड गया

कहाँ सपरिवार बैठ कर स्टील की थाली में ताज़ी बनी इडली साम्भर, चटनी के साथ खाते थे

कहाँ यह प्लास्टिक में पैक सामग्री, पता नहीं कब बनी होगी ,कहाँ बनी होगी, माइक्रोवेव में गरम कर वह स्वाद कहाँ से आएगा

और कहाँ गयीं वे तमिल महिलाएं जो हमें परोस कर खिलातीं थीं

आदत बदलनी पड़ेगी

दुनिया बदल रही है

Thursday, June 26, 2008




तीसरा आदमी कौन है
जो नारियल पानी बम्बई में १५-२० रुपये में इस साल बिक रहा है उसके लिए किसान को फी नारियल दो रुपये भी नही मिलते
मंड्या (मैसूर के पास कर्णाटक में) जिले से पूरे भारत भर में हरे नारियल भेजे जाते हैं
वहां के किसान बताते हैं कि उन्हें २.५० रुपये से ज़्यादा एक नारियल के लिए कभी नहीं मिलते
गेहूं की कीमत मंडी में १००० रुपये क्विंटल नहीं मिलती
(बशर्ते किसान के पास इतनी क्षमता हो कि वह उसे मंडी तक लाकर बेच सके )
बंगलोर में आटा २९-३१ रुपये किलो बिक रहा है
आटे की पिसाई २ रुपये किलो से ज्यादा तो नही लगती होगी
पैकिंग और यातायात की लागत इतनी तो नही हो सकती
इस साल सेब १२०-१३५ रुपये किलो बड़े शहरों में बिक रहे हैं
हिमाचल और कश्मीर के उत्पादकों को क्या कीमत मिलती है ,पता कर लीजिये
कुछ साल पहले भण्डारण और ट्रांसपोर्ट के अभाव में हिमाचल के अनदुरुनी जिलों में आलू और सेब को एक भाव बिकते और न बिक पाने पर सड़ते देखा है
कल शाम जामुन बिकती दिखी ,दाम पूछा-१०० रुपये किलो
हमारे गाँव में क्या कीमत मिलती है बताने में भी शर्म आती है
तो क्या वजह है कि उपभोक्ता को जो खाद्य पदार्थ इतनी ऊँची कीमतों पर मिलते हैं ,उत्पादक किसान लागत भी नहीं निकल पाने के कारन आत्म हत्या करने पर मजबूर है
अब समय आ गया है कि उस आदमी की पहचान कर ली जाए जो न रोटी बेलता है न रोटी खाता है पर जिसकी वजह से आम आदमी को बढती कीमतों से जूझना पड़ता है
प साइनाथ अपनी मशहूर किताब ' Every one loves a good drought 'में तमिलनाडू के रामनाड जिले के मिर्ची उत्पादकों की वहां की मंडी के कमीशन एजेंटों (थारागर) के हाथ लुटने की कहानी बयान करते हैं
बिचौलिए तौलिये के अन्दर उँगलियों की गुप्त भाषा में मिर्ची की कीमत और किसानों की जिंदगी की कीमत तय करते हैं ,खरीदार और किसान इस पूरी प्रक्रिया से बाहर है
कुल ७० कमीशन एजेंटों द्वारा पूरे तमिलनाडू के किसानों की किस्मत का फैसला होता है

गाँव के पास की मंडी में रामधन के बैल बेचने की कहानी प्रेमचंद के ज़माने से नही बदली है
दलालों ,बिचौलियों,एजेंटों के हाथ जिंदगानी पिस रही है
दिल्ली की आजादपुर मंडी के मालिक तय करते हैं कि हिमाचल और कश्मीर के किसानों के घर कितने दिन चूल्हा जलेगा
अजीब मकड़ जाल है यह
(इन्कम टैक्स विभाग के मित्र जब एक केला व्यापारी के यहाँ गए तो भव्यता देख कर दंग थे ,तीन मंजिली airconditioned आरामगाह में घर के अन्दर लिफ्ट लगी थी ,हर मंजिल पर जाने के लिए)
लीची के व्यापार पर शोध करने वाले बताते हैं
'The Pre-Harvest Contractor or the commission agent makes the maximum margin in litchi marketing, as he only performs a transfer function without involving any other cost. The stockists in litchi sale adopt the undercover system and realise higher margins. The retailers are the second market intermediaries who realise a margin of 20 per cent in the consumers price. The overall price spread in litchi trade is observed to be around Rs 49.5 per kg and works out to over 82 per cent. In case the grower undertakes self- marketing, the price spread is approximately Rs 40 per kg. '
८२% मुनाफा !तभी तो लीची खाना अब सबके बस की बात नहीं
कुछ सालों में नारियल पानी भी साझे में पीना पड़ेगा
अगर तीसरे आदमी का साम्राज्य यूँ ही फैलता रहा
चित्र और आंकड़े साभार

Monday, June 23, 2008



कटिंग चाय -मजबूरी में
इसका स्वाद मुंबई वालों के लिए तो आम बात होंगी
पर वन - बाई टू काफी पीने का मौका बंगलोर आकर ही मिला
सधे हाथों से स्टील के ग्लास में पहले गाढा द्रव्य (काफी decoction)डालते हैं फ़िर एक कप दूध+पानी+चीनी के उबलते पेय को दोनों ग्लास में बाँट देते हैं
शुरू में लगता था क्या अजीब शगल है
बाद में लगा कि ये बढती कीमतों से जूझने का एक तरीका है
लेकिन हाल की सर से ऊपर भागती महंगाई के चलते ये काफ़ी भी अब बहुतों को नसीब नहीं है
पूरे दक्षिण भारत में बिना फिल्टर काफी के दिन की शुरुआत नही होती
कामकाजी/मजदूर नुक्कड़ की काफी कढाई/ठेले पर पीते हैं
होटल वाले इडली डोसा के साथ काफी का दाम भी बढ़ाने को मजबूर हैं
काफी हर शख्स पीता है पर बढ़ा हुआ दाम देने में असमर्थ है
होटल वाले आधे कप का तीन चौथाई भर कर उसी कीमत पर बेच रहें हैं
कई लोग दूध कम कर पानी बढ़ा रहें हैं
बिहार में लालू यादव की लोकप्रियता में भले कमी न हुई हो
समोसे के अन्दर भरे आलू मिश्रण में भारी कमी हुई है
बेकरी वाले puff के अन्दर भरा सब्जियों का मसाला कम कर रहे हैं
भोजन भट्ट का परिवार हाल में डोसा खाने गया तो डोसे की साइज़ देख कर दंग रह गया
थाली की साइज़ का डोसा सिमट कर तश्तरी के आकार का रह गया था
दूसरा डोसा ऑर्डर करने की गुंजाईश नही थी सो आधे पेट मन मसोसना पड़ा
दुनिया की दो तिहाई आबादी खाने की बढती कीमतों से जूझ रही है
पर बच्चों को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है
पहले मिड डे भोजन में मेनू हर दिन बदलता था
खारा पोंगल /रोटी सब्जी / चावल साम्भर/ बिसे बिले भात /उपमा मिलती थी
हर डिश में सब्जियां लगती हैं
सब्जियां अब सबको नसीब नहीं
२.३२ रुपये फी बच्चे में शाला विकास प्रबंधन समितियां सब्जियां जुगाड़ने में असमर्थ हैं
नतीजन बच्चों के खाने से सब्जियों की कटौती हो रही है
बड़ी कम्पनियाँ चालाकी अपना रहीं हैं
५०० ग्राम चाय के पैकेट में ४९० ग्राम चाय मिलती है
सो कटिंग चाय भी अब सबको मयस्सर नहीं

Thursday, June 19, 2008


कर्ड राइस
जब से दक्षिण भारत में आए हैं यह डिश पीछा नहीं छोड़ती
कहीं बाहर खाने जाओ तो पुलाव ,अन्ना सारु (रसम चावल) खाने के बाद अगर कहें भी कि और चावल नहीं खाए जायेंगे ,लोग मुस्कराकर कहते हैं अन्ना मसुरु (दही चावल ) तो लीजिये
दफ्तर में जहाँ हमारे तीन खाने के टिफिन में दाल रोटी सब्जी होती थी ,स्थानीय सहयोगी स्टील के छोटे से डब्बे में कर्ड राइस खाकर संतुष्ट थे ,तृप्त थे
चारों प्रान्तों के लोग अगर मिलें तो अपने इलाके के कर्ड राइस का गुण गान करने लगते थे
तमिल लोगों का Thayir Sadam Thayir (Curd) Sadam (Rice), आंध्र प्रदेश में Daddojanum कहलाने लगता है मलयाली अपने ढंग का ही बनाते हैं
कहते हैं कि विदेशों में भी अगर इस इलाके के लोग मिल जायें तो कर्ड राइस कि चर्चा अक्सर होती है
संक्षेप में कर्ड राइस के बिना दक्षिण भारत में भोजन पूरा नहीं होता
हर घर में दोनों टाइम बनाना ज़रूरी है
और हर घर की अलग रेसिपे है
आप भी कहेंगे कि दही चावल बनने में क्या मुश्किल है
मानता हूँ पर फर्क छौंक में है
१ कप उबले चावल लीजिये (ठंडे /गरम सब चलेगा)
उसमे कटी हुई हरी धनिया,हरी मिर्च,अदरक और हींग मिलाएं
इसमें १/२ कप दही और १/४ कप दूध मिलाएं
छौंक के बर्तन में गरम तेल में सरसों/राइ के दाने, उरद की दाल के दाने , चने की दाल के कुछ दाने ,करी पत्ता डालिए (खड़ी लाल मिर्च पसंद हो तो वो भी)
दही चावल के मिश्रण पर डाल कर थोडी देर फ्रिज में रख दीजिये
इंतज़ार मुमकिन न हो तो तुंरत खाइए
साथ में नींबू/आम ( avakai) का आचार और पापड़/fry हों तो अति उत्तम
दुनिया का सबसे आसान comfort फ़ूड हाज़िर है
लेकिन इस सरलीकृत तरीके से पुराने लोग न सहमत हों
आजकल भी तमिल महिलाएं बहू को यह शिक्षा देती मिल जायेंगी
हमारे ज़माने में तो मोतियों से सफ़ेद चावल पर बारीक कटी हरी मिर्च डालते थे
हींग पावडर वाली थोड़े न डालते थे ,कटोरी में हींग की छाल को भिगोकर उसका सत्व निकलता था
ऊपर से अनार के दाने और अंगूर भी पड़ता था
तब स्वाद आता था, आजकल डेरी वाले दूध की दही में क्या मजा
खैर हमारा परिवार तो दीवाना है किसी पार्टी में भी अगर कर्ड राइस दिख जाए तो सब कुछ छोड़ कर उधर मुड़ जाता है
एक बार रामेश्वरम के पास धनुषकोटि के पास एक छोटे से ढाबे में हमारी बिटिया रानी मचल पड़ी
नान कर्ड राइस बेका
भयंकर गर्मी की दोपहरी थी ,कोई भी खाने की चीज ख़राब हो सकती थी
दही तो निश्चित ही खट्टी होगी, दही चावल खाकर बिटिया ज़रूर बीमार पड़ेगी
कोई चारा नहीं था ,सोचा मदुराई पहुँच कर डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा
बिटिया ने अंगुलियाँ चाट कर दही चावल खाए
माँ बाप का दिल काँपता रहा
लेकिन कुछ नहीं हुआ
यह है कर्ड राइस की महिमा
चित्र साभार

अन्नपूर्णा रसोई
कल के अखबार में मुंबई के ' माहिम दरबार ' होटल के बाहर बैठे इन दुखियारे लोगों को देखा तो एक पुरानी याद ताज़ा हो गई
अस्सी के दशक में नई नौकरी के सिलसिले में अहमदाबाद जाना पड़ा
शहर के कई हिस्सों से भव्यता टपकती थी
पर पुराने अहमदाबाद के कई बिरयानी होटलों के बाहर लोगों के झुंड उकडूं बैठे थे
चेहरे पर न बयान की जा सकने वाली पीड़ा और आशा का मिला जुला भाव था
पहले सोचा काम की तलाश में बैठे होंगे
पर दिन के बारह बजे धूप में कौन इन्हे काम देगा
ठेकेदार तो सुबह ही मजदूर पकड़ लेते हैं
पूछ ताछ की तो पता चला कि ये लोग खाने की उम्मीद में होटल के बाहर इंतज़ार कर रहें है
कोई दयालु सज्जन इधर से गुजरेंगे तो होटल मालिक को पचास-सौ रुपये देकर इनमे से कुछ लोगों के एक टाइम के भोजन का इंतजाम हो जायगा
इसी उम्मीद में ये लोग बैठे हैं
धनी लोगों की माया नगरी के ये हाल देख कर मन दुःख और क्षोभ से भर गया
गुजराती लोग तो सारी दुनिया में 'soup kitchen' चलाते हैं ,फ़िर अपने शहर में क्यूं नहीं
कल यही चित्र मुंबई के होटलों के बाहर दिखा
खस्ता हाल ये वो लोग हैं जिन्हें दिहाडी का काम न मिलने पर खाने की तलाश में यूँ भटकना पड़ता है
किसी मेहरबान की निगाह की इंतज़ार में बैठे लोग दस रुपये प्लेट का खाना (अगर मिल जाए ) सर झुकाकर जल्दी जल्दी खाते लोग
जिससे जिंदगी की गाड़ी एक और दिन चल सके
क्या दुनिया की नई महाशक्ति बन कर उभरने का ख्वाब देखने वाले देश के पास कोई रास्ता नहीं है
पंजाब में गुरद्वारों के लंगर के चलते कई शताब्दियों से हर किसी को भोजन उपलब्ध है
बिना किसी सवाल ज़वाब के
कारसेवा के चलते हर आदमी किसी न किसी तरह से सहयोग देता है
मुस्लिम समाज में 'ज़कात' की परम्परा रही है
बिना किसी सरकारी सहायता के १९७४ से पुणे की हमाल पंचायत ३०,००० लोगों को सस्ते में भोजन उपलब्ध कराती है
(शिव सेना सरकार की एक रुपये में 'झुनका भाखर' की स्कीम क्यों नाकामयाब हुई ,इस पर फिर कभी )
हम्माल समाज की महिलायों को रोज़गार के अवसर भी मिलें हैं
असली सवाल क्रय शक्ति का है जवाब वृहत्तर समाज की इच्छा शक्ति का है
कहीं कोई कमी है
तभी भारत के सबसे अमीर लोगों के शहर में हजारों लोग इंतज़ार में है
एक मेहरबान निगाह की
चित्र साभार

Wednesday, June 18, 2008


धान का कटोरा
मृणाल पांडे ने मिंट अखबार में लिखा है कि बुंदेलखंड में अब लोग एक दूसरे की रोटियां लूटने लगे हैं
कुछ खेतिहर मजदूर दिन के खाने की पोटली लेकर निकले ही थे कि गाँव के बाहर दूसरों ने बल से खाना छीन लिया
बंगलादेश से लेकर हैती तक में अनाज की किल्लत से दंगे हो रहें हैं
जबसे ज्ञानवंत बुश साहब ने भारत चीन को दुनिया में खाद्यान्न की कमी के लिए जिम्मेदार बताया है
दुनिया भर में उनकी थू थू हो रही है
विद्वान् गण अनाज को मांस में तब्दील करना कमी का कारण बताते हैं
कुछ लोग corn को ईंधन के लिए उपयोग करने से उपजी जिंसों की किल्लत को जिम्मेदार बताते है
पर इस पूरे प्रकरण में जापान कि भूमिका पर ध्यान नहीं दिया गया
धान की कमी के लिए भारत ,विअतनाम और थाईलैंड पर आरोप लगते हैं कि निर्यात पर रोक लगाने से पड़ोसी देश परेशान हो रहे हैं
जापान हर साल ७ लाख टन धान का आयात करता है
मजबूरन
उसके गोदामों में औसतन २.४ मिलियन टन धान भरा हुआ है
दो तिहाई हिस्सा अमरीका से ख़रीदा हुआ है
यह सारा धान airconditioned गोदामों में रखा है
क्योंकि इसकी ज़रूरत किसी को नही है
सड़ता भी नही
इसलिए हर चौथे साल इसे निकाल कर मुर्गियों को खाने के लिए दाल दिया जाता है
जापानी लोग आयात किया हुआ चावल किसी भी कीमत पर खरीदने को तैयार नही है
शायद मुफ्त में भी नही
दूसरे विश्व युद्ध से जापान ने अगर कोई नसीहत ली तो खाद्यान्नों के मामलें में आत्म निर्भरता की
मगर अमरीका जिद पर अडा है कि हर साल सात लाख टन चावल उसे अमरीका से खरीदने पड़ेंगे
चाहे जरुरत हो या नही
उरुगुए राउंड की यही दरकार है
जापान अगर इस अतिरिक्त चावल को पड़ोसी देशो को बेचना/मुफ्त में भी बाटना चाहे तो नही कर सकता
क्योंकि अमरीका के हिसाब से इससे ग़लत परिपाटी शुरू होगी
अंततः उसके बड़े किसानों को नुक्सान उठाना पर सकता है
इसलिए दंगे होते हैं तो होते रहें
महाबली आजकर गुफ्तगू कर रहे हैं

Tuesday, June 17, 2008


बिहारी व्यंजन

आज कल तो हर ढाबे में पंजाबी खाने के साथ chinese भोजन का मिलना जरुरी सा है
दूरदराज समुद्र के किनारे बने दक्षिण भारतीय होटलों में भी पंजाबी-chinese लिखा होता है
लेकिन ठीक बंगलोर के बीचो बीच बिहारी खाने का विज्ञापन करता 'चिली पेपर ' नई हवा का अहसास कराता है
मर्थाल्ली रिंग रोड पर मल्गुदी होटल के पास इस होटल की खूबियाँ अनेकों है
हफ्ते में तीन दिन यहाँ लिट्टी चोखा ,सत्तू पराठा और मकुनी मिलती है
लिट्टी में हरी मिर्चियां , लहसुन , सरसों का तेल , जीरा मिलाते हैं चोखा उबले आलू , बैंगन और टमाटर का मिलता है
सत्तू में पानी के साथ अदरक,जीरा मिलाकर पीने को भी मिलता है लिट्टी कोएले पर पकती है ,चाहें तो मटन/चिकन करी के साथ खाएं
अचरज की बात यह है कि इसके मालिक धरमराज मलयाली हैं
बोकारो में बचपन बीता, मैसूर में पढे पर बिहार के भोजन का स्वाद नहीं भुला पाये
स्टील के व्यापार के साथ इस दिशा में भी कदम बढाये शुरू शुरू में बहुत घाटा हुआ
होटल के किराये और खर्चे की लागत भी नही निकलती थी
पर बंगलोर की दो लाख से ज्यादा up/बिहार के जन मानस की आशा में टिके रहे
मेहनत रंग लायी और सप्ताहांत में होटल भरा रहता है
राजधानी एक्सप्रेस की शक्ल में बनी खिलौना ट्रेन खाना गर्म करने और सर्व करने के काम आती है मेनू में ६५० से ज्यादा व्यंजन लिखें हैं
हमने गोली कबाब ,पांच सब्जियों से बनी veg ginger से शुरुआत की
तले हुए कबाब के साथ मसाला पेप्सी अजब ही स्वाद देता है
काली दाल ,सब्जी अकबरी और नरगिसी कोफ्ते किसी भी अच्छे रेस्तौरांत को मात दे सकते थे
अनानास का रायता थोडी पीली रंगत लिए था
पेट इतना भर गया था कि गर्मागर्म जलेबी छोड़नी पड़ी
दिन के वक्त दाल बाटी चोखा नहीं मिलता है
इसका अफ़सोस रहा पर उम्मीद पर दुनिया कायम है
अगली बार सही

Monday, June 16, 2008


बेताज बादशाह
अमीन सयानी की भाषा में कहूँ तो ढाबे भी कई पायदान चढ़ते उतरते रहते हैं
श्रोताओं की फरमाइश और रेकोर्डों की बिक्री की तरह ही ग्राहकों की पसंद बदलती रहती है
हर हफ्ते न सही ,कुछ महीनों में बदलाव नज़र आ जाता है
इसके चार पैमाने हो सकते हैं
१.उत्तम खाना
२.पैसा वसूल दाम
३.माहौल और साफ सफ़ाई
४.शहर से दूरी
कुछ सालों पहले खाने के शौकीनों की राय बंटी हुई थी
अमृतसर-जालंधर मार्ग का Lucky ढाबा पहली पायदान पर गिना जाता था
चौबीसघंटे ढाबे के सामने बसों ,ट्रकों की कतार लगी रहती थी
लुधिअना जालंधर के बाशिंदे भी अच्छे सुस्वादु भोजन की खोज में मिल जाते थे
कई लोग करनाल-पानीपत सड़क पर बने प्रिन्स ढाबा को सरताज मानते थे
हिमाचल वाले कसौली के रस्ते में धरमपुर के पास के 'ज्ञानी ढाबा' की तारीफ़ करते थे
बरनाला कैंची के पास का नेशनल ढाबा भी मशहूर था
(खाना सबमे एक जैसा ही था ,कड़क तन्दूरी पंजाबी व्यंजन)
लेकिन २००१-०२ में लुधियाना जालंधर सड़क पर एक नया ढाबा क्या खुला
कि सारी तस्वीर बदल गई
पारंपरिक पंजाबी शान शौकत से सजा 'हवेली' शाकाहारी ढाबा जब खुला तो महीनों तक ढाबे के बाहर घंटों लम्बी कतारें लगीं
दो तीन बार और जालंधर वालों की तरह भोजन भट्ट का परिवार भी बाहर से नज़ारे देख कर लौट आया
जलेबी,गुलाब जामुन, कुल्फी ,चाट बाहर ही मिलती थी
गोवा में होटल बेच कर बनाए इस ढाबे से जैन बंधुओं ने ढाबों की दुनिया में मानो क्रांति ला दी
ढाबे के कई हिस्से थे
५५० सीटों वाला वातानुकूलित हाल -फुलकारी सजावट और पारंपरिक बर्तन भांडे सहित
किलकारियाँ -बच्चों के खेलने के लिए मेले जैसा माहौल -पानी से भरा नकली कुआँ,पनघट समेत
पास में रंगला पंजाब पार्टी हॉल
ख़ास बात यह थी कि फाइव स्टार व्यवस्था के बावजूद दाम ढाबे के स्तर के थे
अपनी याद दाश्त में इतने साफ सुथरे बाथ रूम मैंने किसी होटल में नही देखे
भोजन भी उत्तम था ,वहां खाई व्रतों वाली नवरात्र थाली अभी भी याद है
खीर ठंडी और गाढ़ी थी
कढ़ी चावल और मिस्सी रोटी लाजवाब थे
और जेब पर बोझ भी ज्यादा नही पड़ा
कोई अचरज नही की इतने सालों के बाद भी पहली पायदान पर टिका है
ढाबों का बेताज बादशाह
जालंधर का हवेली ढाबा

Friday, June 13, 2008

यह असंभव नहीं है



पहले एक बार सारे सवालों पर नज़र मार लें
भूख /भुखमरी अपोषण /कुपोषण जिंदा सच्चाई है
आधी से ज़्यादा जनता हर दिन बीस रुपये से कम पर जीने मजबूर है
जो बढ़ते खाने की कीमतों के चलते मुश्किल होता जा रहा है
बेरोजगारी के हल का कोई रास्ता नही नज़र आ रहा है
शहरी गरीब को सस्ते खाने और रोज़गार, दोनों की दरकार है
गोदामों में अन्न सड़ रहा है
हाँ बाबा आगे तो बढ़ो
ऐसा नहीं हो सकता कि इन्हीं बेरोजगार लोगों को दूसरों को भोजन देने की जिम्मेवारी सौंपी जाए
पिछली कड़ी में ऐसे कुछ लोगों का जिक्र हुआ था
कर्नाटक में अक्षय पात्र, अक्षय दोष, छत्तीसगढ़ में दान्तेर्श्वरी समूह इस काम मे लगे हैं
इन्हें सरकार १.३१ पैसे फी बच्चे के हिसाब से अनाज देती है
( 50 किलो चावल के भारतीय खाद्य निगम के हर बैग में औसतन 3 किलो कच्डा (मिट्टी ,कंकड़ ,कीलें) निकलता है )
जिसे करीबन ६ रुपये की लागत में ताज़ा खाना बना कर बच्चों को देते हैं
अगर शहरों में वंचित महिलायों के समूह इस काम को लें
तो आसानी से हर गली ,मुहल्लें में एक अन्नपूर्णा रसोई खुल सकती है
जहाँ पांच-छः रुपये में हर इंसान को भर पेट खाना दिया जा सकता है
(बाद में इसका विस्तार पूरे देश में हो सकता है)
सरकार को अनाज और ईंधन देना पड़ेगा
महिलाओं को काम और आमदनी का नया रास्ता मिलेगा
समाज को इसका संचालन अपने हाथ में लेना पड़ेगा
यह शेख चिल्ली नुमा योजना नही हैं
महारास्त्र में हम्माल संघ की महिलाएं हर दिन ६-३० रुपयों में ३०००० लोगों को खाना खिलाती हैं
बिना किसी सरकारी मदद के
तो इतना असंभव भी नहीं है यह सपना
कि किसी को भूखे पेट न रहना पड़े

Sunday, June 8, 2008

तारे जमीन पर



अगर मैं आपसे कहूँ कि हर दिन ५.९१ रुपये में बच्चों को भर पेट खाना दिया जा सकता है

तो आप नहीं मानेगें
पर बंगलोर के सारे सरकारी स्कूलों में बच्चों को ताजा बना गरमा गरम चावल, सब्जियों वाली साम्भर , दही के साथ मिलता है

वो भी स्टेनलेस स्टील के विशालकाय बर्तनों में औद्योगिक तरीके से बिना हाथ लगाये पकाया हुआ

जिसे बनने के दो घंटे के अन्दर खास किस्म के ट्रक हर स्कूल मे पहुंचाते हैं

कहने कि जरुरत नहीं कि इसकी वजह से बंगलोर के सरकारी स्कूलों में पहली जमात में बच्चों के प्रवेश की गति १८% बढ़ी जबकि आठवीं क्लास के बाद स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या में २३% कमी आई

हर दिन ८३०००० बच्चों को दोपहर का भोजन मिलता है लगभग छः रुपये की लागत से

जिसमें से १.३१ रुपये सरकार से मिलते है

संस्था का नाम है ' अक्षय पात्र' जिसमें इस्कोन मन्दिर की साझेदारी है

कंप्यूटर की दुनिया के बड़े नाम भी मदद करतें है

इनफोसिस के निदेशक मोहन दास पाई का बड़ा निजी योगदान है

इस्कोन मन्दिर से वैचारिक मतभेद हो सकतें हैं



पर बच्चो को दोपहर का भोजन मिले

इस पर सोचने की जरुरत है

ऐसा नहीं कि और हिस्सों में प्रयास नही हो रहे

कर्नाटक में ही अक्षर दसोहा योजना में बच्चों को पोंगल, लेमन राइस के अलावा मीठा शीरा भी मिलता हैं

तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में सप्ताह मे एक बार उबला अंडा या फल भी मिलता है

छतीसगढ़ में इसे माताओं की संस्था 'दंतेश्वरी समूह' 1,14521 प्राथमिक विद्यालयों में चलाती है

लोग एम् जी रामचंद्रन को मिड डे मील योजना का जनक समझतें हैं

पर इसकी शुरुआत १९२५ में मद्रास कॉर्पोरेशन ने कर दी थी

आज कल तो तमिल नाडु सरकार अशक्त बुजुर्गों तथा गर्भवती महिलायों को भी भोजन देती है

अगर ६ रुपये में भोजन बनाया/ खिलाया जा सकता है

तो ज्यादातर बच्चे भूखे पेट स्कूल जाने के लिए क्यों अभिशप्त हैं

अगर पूरे मुल्क में हर बच्चे को स्वादिष्ट और पोषक खाना देना हो

तो पूरे साल की लागत आएगी ६००० करोड़ रुपये

यह असंभव राशि नही है

जिस देश में दुनिया भर के अमीर रहतें हैं

(आंकडे यह बताते हैं कि दुनिया के सबसे अमीर २० लोगों में से कई अपने मुल्क के हैं)

जहाँ दुनिया का सबसे महंगा मकान मुम्बई में बन रहा है

वहाँ किसी को भूखे पेट रहना पड़े

सबसे बड़ी त्रासदी है

Friday, June 6, 2008

मिड डे मील का अंक गणित


भोजन भट्ट के ढाबा पुराण से इतर पंजाब की सच्चाई कुछ और भी है

जी .टी. रोड पर लुधियाना

के पास खन्ना एशिया की सबसे बड़ी धान की मंडी है

मंडी के चारो और FCI की सरकारी खरीद के धन के बोरे खुले मे पड़े है

सड़ने के लिए
कहीं तिरपाल से ढंकने की रस्म अदायगी करने की कोशिश दिखती है

यही हाल पूरी जी. टी रोड के किनारे बने कच्चे गोदामों का है,

हरियाणा में भी यही स्थिति दिखती है

सरकारी खरीद का दस % हिस्सा इस तरह जाया हो जाता है

ऐसे देश में जहाँ भुखमरी से अभी तक निजात नहीं मिली है ,

बाल कुपोषण के आंकडे अपनी कहानी बताते हैं

unicef का कहना है कि दुनिया में आधी से ज्यादा बच्चों की मौतें भूख और कुपोषण से होंती है

इसमे मे भी अपना मुल्क लीडर है

हाल ही में जारी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ( एनएफएचएस -3 ) के हवाले से

तीन साल से कम उम्र के 45.9 प्रतिशत से ज़्यादा बच्चे underweight हैं

पाँच साल से ज्यादा उम्र के करीबन ६००० बच्चे हर दिन भुखमरी और कुपोषण से मरते हैं

दुनिया के 146 करोड़ अल्पपोषित बच्चों के एक तिहाई 57 करोड़ अपने देश में हैं

बच्चों के खाली पेट विद्यालय जाने का दुःख बयान करने की जरुरत नहीं

ऐसे में इस बात पर बहस नहीं हो सकती कि

दोपहर के भोजन अगर शाला परिसर में ही मिले

तो दुखियारे माँ बाप के अपने बच्चों को सुबह स्कूल जाने के लिये

राजी करना आसान होगा .
.
कहने को तो १९९५ में ही मिड डे भोजन की योजना कागजों पर शुरू हो गई थी

लेकिन २००१ में सर्वोच्च न्यायालय को मजबूरी में हुकुम देना पद

कि हर स्कूली बच्चे को पकाया हुआ खाना शाला में मिलना होगा

बहुत सारी राज्य सरकारें इसके बदले 'सूखा अनाज ' बच्चों में बाँटती थीं

जो अक्सर बच्चों के घर पहुँचने से पहले बस्ते से गिर जाता था

जहाँ मिड डे भोजन मिलता भी था

वहाँ से सडा/बासी खाना मिलने की शिकायतें मिलीं थीं

सुधार की बजाय सुनने मे आ रहा है

दिल्ली में यह बहस जोरों से चल रही है कि

गर्मागर्म पकाए खाने की सांसत में पड़ने की जगह बिस्कुट के पैकेट बच्चों में बांटे जाएं

जरुर बिस्कुट बनने वाली कम्पनियाँ खुश होंगी

कवि ने जब लिखा था कि

भूख लगी है तो सब्र कर, रोटी नही.तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है जेरे -बहस ये मुद्दा

उन्हें पता नही था कि चालीस साल में इतनी प्रगति होगी

आगे रोटी बनाम बिस्कुट की बहस चलेगी

अगली कड़ी में -

'भूख का अर्थशास्त्र '

Tuesday, June 3, 2008

SORRY FOR THE INTERRUPTION



जबसे यह ब्लॉग शुरू किया है पुराने मित्रों से फिर से खतो किताबत शुरू हो गई है '' धन्य हैं महाराज , साइनाथ साहब सरकारी बदचलनी के बारे में लिख रहें है और आपको इस सड़ी गरमी में मूली का पराठा सूझ रहा है''जनाब हम तो आपको पढने लिखने वाला बन्दा समझते थे ,आप तो रसोइए निकले''''आपको मोटे लेंस वाले चश्मे से e.p.w. और seminar पढ़ते देखा था ,क्या पता था कि अब आप कुक बुक लिखने लगेंगे"'' अर्थशास्त्र और सांख्यकी पढने के बाद अमरीकी बाजारवाद का भंडाफोड़ करना चाहिए था ,आप तो सुपरमार्केट में डोसा खरीदने लगे".और आखिर में '' हम तो सोचते थे कि आप अरुन्धती राय की तर्ज़ पर नव साम्राज्यवाद के बारे में लिखेंगे , पर आप तो तरला दलाल निकले.''
मैं नतमस्तक हूँ , पर हुजूर एक छोटी सी कहानी सुन लीजिये
बहुत पुरानी बात भी नही है.पिछले दशक का ही कोई साल था
दफ्तर से एक शाम पत्र मिला कि आप को infantry रोड पर g-2 मकान छः महीने के लिए alott किया जाता है अतः no.g-14 तुरन्त खाली कर दें. लगा दुनिया की सबसे बड़ी नेमत मिल गई है. नया मकान ground floor पर था,एक बेडरुम ,किचन बाथरूम उस के साथ एक छोटी सी बैठक भी जुड़ी थी
शादी के बाद एक साल से हम लोग दूसरे माले पर एक कमरे (g-14) के निवास में रह रहे थे,जिसके बीच में परदा खींच कर थोडी ओट सी कर ली गई थी.
उस एक कमरे मे ही सारी गृहस्थी थी, दो सिंगल बेड को जोड़ कर बिस्तर बना लिया गया था,दो बेंत की कुर्सिया थीं जो बहु काजी थीं
रसोइं में किताबें भरी थी , गैस की लम्बी वेटिंग लिस्ट थी
पुरानी किताबों ,पत्रिकायों के अलावा जब श्यामल नारायण रिज़र्व बैंक की नौकरी को छोड़ इलाहाबाद वकालत करने चले गए तो सिविल सर्विस की तैयारी की अपनी सारी पुस्तकें छोड़ गए थे.
हाल यह था कि उस कमरें में कभी कोई पुराना मित्र / परिचित आ जाए तो हम दोनों को जल्दी से अधखाई थाली खाट के नीचे सरकानी पड़ती थी.
ऐसा नही था कि बाहर मकान नहीं खोजे पर वे हमारी पहुँच के बाहर थे
आसपास छोटे से दो बेडरूम के फ्लैट भी २५०० से काम किराये पर नही मिलते .
साथ मे दस महीने का किराया अडवांस मांगते थे.
२५००० रुपये नव दम्पति के हैसियत के बाहर थे
दफ्तर से 600-700 रुपये मकान किराये के भत्ते के नाम पर मिलता था
दूर जाना सम्भव नही था
अपने पास स्कूटर तो दूर साइकिल भी नहीं थी.
तो नया मकान (छः महीने के लिए ही सही) सौगात से कम नहीं था.
दफ्तर से लौटते ही पति पत्नी ने सोचा कि कौन दूर जाना है ,दो मंजिल और 30 सीढियों की ही तो बात है , सामन आज ही नए माकन में shift कर लेंते हैं
कपड़े बर्तन भांडे समेटे ,चादरों में गत्त्थर बांधे और सीढियों के रस्ते नए घर में उतरने लगे
शुरू में उत्साह था ,चार पाँच चक्कर तो लगा लिए ,लेकिन जब किताबों की बारी आई तो हिम्मत जवाब देने लगी. किताबें इतनी भारी होंगी ऐसा सोचा नही था पता नही पुराने दिनों में बौद्ध भिख्शु कैसे पोथियां ढोकर भारत से चीन ले गए होंगे लेकिन किताबों को छोड़ा भी नही जा सकता था ,रोते गाते किसी तरह दसियों चक्कर सींढिंयोँ पर ऊपर नीचे कर सारी किताबें नए मकान में पहुँचा हीं दी
लेकिन हम दोनों बुरी तरह थक गए थे , टांगे जवाब दे रहीं थी हाथ उठते नही थे
सुरमई शाम ढल चुकी थी , थोडी देर तो दोनों लोग औंधे पड़े रहे पर थोड़ा आराम मिलने पर भूख भी लगने लगी .घर में सामान चारों और बेतरतीब फैला था
जहाँ तक खाना बनाने का सवाल था , दोनों ही नौसिखिये थे
muir होस्टल की मेस जब बंद होती थी तो आलोक सिंह और मैं सोया के नुट्री नुगेट डाल कर तहरी नुमा पुलाव बना लेते थे था. चीनी (सुधीर गुप्ता) मैगी में अंडा डाल कर कुछ fried noodle जैसा बना leta था. विमल और प्रमोद के डेरे पर खिचडी एक दो बार बनाईं थी.
यही हाल पत्नी का भी था. होस्टल में पढी थीं .Mphil की पढ़ाई के साथ खाना बनाने की नौबत नही आई थी, सो अब क्या करें .
गृहलक्ष्मी ने सुझाव दिया कि बाजू में शंबाघ होटल है , दस बजने वाले हैं, देखो कुछ भोजन शायद मिल जाए. यह प्रक्टिकल सलाह थी . बंगलोर के होटलों में पन्द्रह बीस रुपये में भर पेट स्वादिष्ट खाना मिल जाता था.
पर होटल की ओर कदम नहीं उठे . दिल में एक फाँस लगी थी. हुआ यह था कि एक दिन m.g.रोड पर भटकते हुए पुरानी पत्रिकायों के स्टाल में विदेशी 'good housekeeping' की एक प्रति 5 रुपये में हाथ लग गई थी . निगाहें रेसिपे सेक्शन में एक डिश पर अटक गयीं थीं . इसमे उबले अण्डों का प्रयोग किया गया था .नाम था 'Devilled eggs'
पता नही कौन सी घड़ी थी
बदन थका था पर दिल काम कर रहा था. बजाय होटल जाने के कदम किचन में घुस गए .चारों ओर बिखरे कोहराम को भूल कर अंडे उबालने को रखे.
शादी में एक ओवेन मिला था ,बड़ा गोलमटोल almunium का ढांचा ,जिसमे केक बन सकता था. उसको बिखरे सामान में से खोज कर ओन किया और ''Devilled eggs'' बनाये .
पत्नी थक कर भूख प्यास भूल कर सो चुकीं थीं .
उनको जगाया और तश्तरी में ''Devilled eggs'' पेश किए
उन्हें पहले तो विश्वास नही हुआ,


फिर माथा पीट कर बोलीं 'धन्य हो भोजन भट्ट'

अमृतसर का जायका


वैसे तो गुरु की नगरी मे लंगर के प्रसाद से अच्छा कुछ ही नही सकता
पर अम्बरसरिये (अमृतसर वाले) तो लगता है घर में खाना खाने में विश्वास नही रखते
नाश्ते में कुलचा चना ,पूरी छोले लेना हो तो हर गली में बने कुलचे वालों से ले लें या
चाहें तो मकबूल रोड के कोने पर बैठे सरदार जी से ले लें ,लारेंस रोड पर भी अच्छा मिलता है
इतना खस्ता ,कुरकुरा आलू, प्याज वाला तन्दूरी कुलचा और साथ में छोले
और इमली की चटनी या हरी चटनी और कटा प्याज अमृत्सरी लस्सी का जवाब नहीं अद्भुत स्वाद है जो कहीं और नही मिलता .
एकबार चंडीगढ़ में एक सज्जन अमृतसर से लाये
कुलचे चने ३४ सेक्टर में बेच रहे थे पर हमे तो बेस्वाद लगे
पूरी/कचोरी खानी हो 'कन्हैया ' का ढाबा आजमा लें जलेबी, फिरनी चखना हो तो कटरा अहलुवालिया में गुरुदास जलेबीवाले की दुकान पर धावा बोलें नान वेज का शौक रखतें हो तो अमृत्सरी मछली (तली हुई)
खाए बिना शहर न छोडें -माखन ढाबा कीमा नान-पाल ढाबा .मटन करी-प्रकाश ढाबा -ये जगहें नोट कर लें
पर लगता है हम लोग अमृतसर के गली कूँचों में भटक गए
जाना था townhall के पास भरवां दा ढाबा, पहुँच गए केसर दा ढाबा
फिरनी ललचा रही थी पर हमें तो अपने ढाबे की स्पेशल थाली खानी थी
दफ्तर ने नए रंगरूटों को शहर घुमाने की ड्यूटी लगाई थी
बहती गंगा में हाथ धोने ढाबे में घुस गए
पर यहाँ तो दूसरी ही गंगा बह रही थी रोटी पर मक्खन हो तो ठीक है
काली मा की दाल में घी का होना लाजमी है
पर पनीर की सब्जी और आलू गोभी की तरकारी भी देसी घी से सराबोर थी
गाजर का हलवा बदाम और घी से लबरेज था \
बस दही भल्ला ही इस बारिश से बचा था
खाना अत्यन्त स्वादिष्ट था
नए रंगरूट गदगद थे
पर मेरी समझ में यह बात आ गई कि दिल्ली के एस्कोर्ट्स अस्पताल ने अपनी पहली शाखा अमृतसर में क्यों खोली है
सोचा घर पहुँच कर कोलेस्ट्रोल का टेस्ट करवा लूँगा

Monday, June 2, 2008

पंजाबी ढाबा


कहतें हैं कि जब सत्यजित राय 'पाथेर पांचाली ' (song of the road)बना रहे थे तो पैसे कम पड़ने पर तब के बंगाल के संवेदनशील मुख्यमंत्री ने p.w.d. विभाग से कुछ मदद करादी थी आजकल तो कई बड़े ढाबे फिल्म स्पांसर करने मे सक्षम हैं वह दूसरा जमाना था जब ढाबे शहर के बाहर सड़क किनारे लगे ट्रकों की कतार से पहचाने जाते थे थके हारे ड्राईवर ने हैंडपंप पर हाथ मुहं धोया , चारपाई पर लेट कर टाँगे फैलाई नही कि छोटू पटरा बिछा देता था और ताजा गरमा गरम खाना परोस देता था ,आर्डर लेने की जरुरत नही थी अब तो बड़े शहरों के बीच बने स्टार होटलों में भी नफीस ढाबे खुलने लगे हैं .बड़ी मेहनत से ढाबे का माहौल बनने की कोशिश होती है , पुराने ट्रक की chasis , बे तरतीब पड़े मूढे, ब्लैक बोर्ड पर लिखा मेनू और उस पर लिखे पांच तारा दाम एकबार दिल्ली के क्लारिजस होटल के 'ढाबा 'रेस्तोरंत का बिल देखकर संगिनी ने मेजबान से कह दिया कि इतने में तो बंगलोर की हवाई जहाज दो टिकटें आ जातीं . लेकिन असली ढाबे तो अभी भी हाईवे पर ही मिलते हैं, पहचाने कैसे कुछ लोग कहते है असली ढाबे में मेनू कार्ड नहीं होना और गर्मागर्म खाने के सीमित व्यंजन उसकी पहचान हैंअब तो दक्षिण भारत में भी पंजाबी ढाबा दिख जाता है पर चलते हैं असली पंजाबी ढाबों की तलाश मेंपहली कड़ी में अमृतसर का भरवां दा ढाबा