Tuesday, June 3, 2008

SORRY FOR THE INTERRUPTION



जबसे यह ब्लॉग शुरू किया है पुराने मित्रों से फिर से खतो किताबत शुरू हो गई है '' धन्य हैं महाराज , साइनाथ साहब सरकारी बदचलनी के बारे में लिख रहें है और आपको इस सड़ी गरमी में मूली का पराठा सूझ रहा है''जनाब हम तो आपको पढने लिखने वाला बन्दा समझते थे ,आप तो रसोइए निकले''''आपको मोटे लेंस वाले चश्मे से e.p.w. और seminar पढ़ते देखा था ,क्या पता था कि अब आप कुक बुक लिखने लगेंगे"'' अर्थशास्त्र और सांख्यकी पढने के बाद अमरीकी बाजारवाद का भंडाफोड़ करना चाहिए था ,आप तो सुपरमार्केट में डोसा खरीदने लगे".और आखिर में '' हम तो सोचते थे कि आप अरुन्धती राय की तर्ज़ पर नव साम्राज्यवाद के बारे में लिखेंगे , पर आप तो तरला दलाल निकले.''
मैं नतमस्तक हूँ , पर हुजूर एक छोटी सी कहानी सुन लीजिये
बहुत पुरानी बात भी नही है.पिछले दशक का ही कोई साल था
दफ्तर से एक शाम पत्र मिला कि आप को infantry रोड पर g-2 मकान छः महीने के लिए alott किया जाता है अतः no.g-14 तुरन्त खाली कर दें. लगा दुनिया की सबसे बड़ी नेमत मिल गई है. नया मकान ground floor पर था,एक बेडरुम ,किचन बाथरूम उस के साथ एक छोटी सी बैठक भी जुड़ी थी
शादी के बाद एक साल से हम लोग दूसरे माले पर एक कमरे (g-14) के निवास में रह रहे थे,जिसके बीच में परदा खींच कर थोडी ओट सी कर ली गई थी.
उस एक कमरे मे ही सारी गृहस्थी थी, दो सिंगल बेड को जोड़ कर बिस्तर बना लिया गया था,दो बेंत की कुर्सिया थीं जो बहु काजी थीं
रसोइं में किताबें भरी थी , गैस की लम्बी वेटिंग लिस्ट थी
पुरानी किताबों ,पत्रिकायों के अलावा जब श्यामल नारायण रिज़र्व बैंक की नौकरी को छोड़ इलाहाबाद वकालत करने चले गए तो सिविल सर्विस की तैयारी की अपनी सारी पुस्तकें छोड़ गए थे.
हाल यह था कि उस कमरें में कभी कोई पुराना मित्र / परिचित आ जाए तो हम दोनों को जल्दी से अधखाई थाली खाट के नीचे सरकानी पड़ती थी.
ऐसा नही था कि बाहर मकान नहीं खोजे पर वे हमारी पहुँच के बाहर थे
आसपास छोटे से दो बेडरूम के फ्लैट भी २५०० से काम किराये पर नही मिलते .
साथ मे दस महीने का किराया अडवांस मांगते थे.
२५००० रुपये नव दम्पति के हैसियत के बाहर थे
दफ्तर से 600-700 रुपये मकान किराये के भत्ते के नाम पर मिलता था
दूर जाना सम्भव नही था
अपने पास स्कूटर तो दूर साइकिल भी नहीं थी.
तो नया मकान (छः महीने के लिए ही सही) सौगात से कम नहीं था.
दफ्तर से लौटते ही पति पत्नी ने सोचा कि कौन दूर जाना है ,दो मंजिल और 30 सीढियों की ही तो बात है , सामन आज ही नए माकन में shift कर लेंते हैं
कपड़े बर्तन भांडे समेटे ,चादरों में गत्त्थर बांधे और सीढियों के रस्ते नए घर में उतरने लगे
शुरू में उत्साह था ,चार पाँच चक्कर तो लगा लिए ,लेकिन जब किताबों की बारी आई तो हिम्मत जवाब देने लगी. किताबें इतनी भारी होंगी ऐसा सोचा नही था पता नही पुराने दिनों में बौद्ध भिख्शु कैसे पोथियां ढोकर भारत से चीन ले गए होंगे लेकिन किताबों को छोड़ा भी नही जा सकता था ,रोते गाते किसी तरह दसियों चक्कर सींढिंयोँ पर ऊपर नीचे कर सारी किताबें नए मकान में पहुँचा हीं दी
लेकिन हम दोनों बुरी तरह थक गए थे , टांगे जवाब दे रहीं थी हाथ उठते नही थे
सुरमई शाम ढल चुकी थी , थोडी देर तो दोनों लोग औंधे पड़े रहे पर थोड़ा आराम मिलने पर भूख भी लगने लगी .घर में सामान चारों और बेतरतीब फैला था
जहाँ तक खाना बनाने का सवाल था , दोनों ही नौसिखिये थे
muir होस्टल की मेस जब बंद होती थी तो आलोक सिंह और मैं सोया के नुट्री नुगेट डाल कर तहरी नुमा पुलाव बना लेते थे था. चीनी (सुधीर गुप्ता) मैगी में अंडा डाल कर कुछ fried noodle जैसा बना leta था. विमल और प्रमोद के डेरे पर खिचडी एक दो बार बनाईं थी.
यही हाल पत्नी का भी था. होस्टल में पढी थीं .Mphil की पढ़ाई के साथ खाना बनाने की नौबत नही आई थी, सो अब क्या करें .
गृहलक्ष्मी ने सुझाव दिया कि बाजू में शंबाघ होटल है , दस बजने वाले हैं, देखो कुछ भोजन शायद मिल जाए. यह प्रक्टिकल सलाह थी . बंगलोर के होटलों में पन्द्रह बीस रुपये में भर पेट स्वादिष्ट खाना मिल जाता था.
पर होटल की ओर कदम नहीं उठे . दिल में एक फाँस लगी थी. हुआ यह था कि एक दिन m.g.रोड पर भटकते हुए पुरानी पत्रिकायों के स्टाल में विदेशी 'good housekeeping' की एक प्रति 5 रुपये में हाथ लग गई थी . निगाहें रेसिपे सेक्शन में एक डिश पर अटक गयीं थीं . इसमे उबले अण्डों का प्रयोग किया गया था .नाम था 'Devilled eggs'
पता नही कौन सी घड़ी थी
बदन थका था पर दिल काम कर रहा था. बजाय होटल जाने के कदम किचन में घुस गए .चारों ओर बिखरे कोहराम को भूल कर अंडे उबालने को रखे.
शादी में एक ओवेन मिला था ,बड़ा गोलमटोल almunium का ढांचा ,जिसमे केक बन सकता था. उसको बिखरे सामान में से खोज कर ओन किया और ''Devilled eggs'' बनाये .
पत्नी थक कर भूख प्यास भूल कर सो चुकीं थीं .
उनको जगाया और तश्तरी में ''Devilled eggs'' पेश किए
उन्हें पहले तो विश्वास नही हुआ,


फिर माथा पीट कर बोलीं 'धन्य हो भोजन भट्ट'

2 comments:

VIMAL VERMA said...

तो ये कहानी है भोजन भट्ट की..चलिये एक बात तो आपने तय कर ही दी है कि भोजन के साथ-साथ संजय से जो हमें उम्मीदें है...यद करे इलाहाबाद विश्विद्यालय से निकलने वाला ’कैम्पस’तो जिन सज्जन ने भोजन के साथ साथ कुछ और परोसने के लिये कहा था..मुझे भी लगता है उन्होने कहीं से भी गलत नहीं कहा...और अब जो आपके ब्लॉग का स्वरूप बन पा रहा है....उसी से शायद जो हम आपसे चाहते हैं मिल जाये...संस्मरणात्मक कहानी दिव्य है भाई...आप कुछ न कुछ हमें खिलाते रहें बस और क्या चाहिये....

अभय तिवारी said...

कहानी छोटी सी थी ये? ब्लॉग के लिहाज़ से लम्बी थी.. फिर भी दिल किताबों से हटकर तरला दलाल पर कैसे अटक गया ये बात रह ही गई..
ऐसा नहीं कि खाने से कोई शिकायत है.. उसके बारे में भी लिखिए.. स्वादिष्ट संसार है वो तो..
आपका नाम सुनता रहा था.. पढ़ता रहा था अभिव्यक्ति के पन्नो पर .. मिलने का सौभाग्य नहीं हुआ.. आज ऐसे मिलना हुआ..
सलाम पहुँचे.. रंग आप अपनी मर्जी का चुन लीजियेगा..